Friday, February 15, 2019
Saturday, February 9, 2019
तलाश
कुछ उलझी भीड़ की तन्हाइयों में
खुद को तलाशती
बेफिक्र लोगों में चिंता से जकड़ी खुद को तलाशती
एक नारी के मन में लगे जख्मों को खोजती।
गुमनाम मंजिलों में रास्ता तलाशती
कभी खुद को तो कभी अपने गमों को खोजती
डरी सहमी जिंदगी में खुशियों को झकती
अन्धेर रास्तों पर किरण में लिपटी हो,
ऐसे ही एक दिन को खोजती
मिल जाए कही बेफिक्र जिन्दगी
शायद इसलिए मुश्किलों में भी रास्ता तलाशती
अपने ही अन्दर आत्मा को खोजती
अपने ही अन्दर जज्बा खोजती
टुटे हुए दिल के जख्मों को झकती
कुछ उलझी भीड़ की तन्हाइयों में
खुद को तलाशती।।
--प्रियंका गोड़िया
Wednesday, January 30, 2019
शत् शत् प्रणाम
जब कभी हम लड़खडाए,
तुमने हमें थाम लिया
तुमने हमें थाम लिया
थके, हारे जब हम घबड़ाए
तेरे आंचल ने हमें पनाह दिया
भूखे पेट न कभी हमें सोने दिया
तुमने हाथों से खिला निवाला
हमारे माथे को चुम लिया
तेरी ममता का कोई अन्त नहीं,
तुम्हारे जैसा कोई शख्स नहीं,
सबसे बड़ा है, तुम्हारा स्थान
इसलिए ईश्वर ने भी सर झुका कर
तुम्हारे जैसा कोई शख्स नहीं,
सबसे बड़ा है, तुम्हारा स्थान
इसलिए ईश्वर ने भी सर झुका कर
"माँ", तुमको शत् शत् प्रणाम किया।।
फिर क्यों आज यह कुचक्र चला?
तुझे दिखा अनाथालय का दरवाजा
सन्तानों ने ही नाता तोड़ लिया,
तेरे आंचल को फिर "माँ"
क्यों बहुतों ने तार - तार किया ?
तुम्हें दो वक्त की रोटी तो दे न पाएं
परन्तु पेट भर अपमान दिया
फिर भी सब कुछ भुलाकर तुमने
उनके ही सन्तानों को ,
अनन्त, अपार प्रेम किया
इसलिए ईश्वर ने भी सर झुका कर
" माँ ", तुमको शत् शत् प्रणाम किया ।।
-- प्रियंका गोड़िया
तुझे दिखा अनाथालय का दरवाजा
सन्तानों ने ही नाता तोड़ लिया,
तेरे आंचल को फिर "माँ"
क्यों बहुतों ने तार - तार किया ?
तुम्हें दो वक्त की रोटी तो दे न पाएं
परन्तु पेट भर अपमान दिया
फिर भी सब कुछ भुलाकर तुमने
उनके ही सन्तानों को ,
अनन्त, अपार प्रेम किया
इसलिए ईश्वर ने भी सर झुका कर
" माँ ", तुमको शत् शत् प्रणाम किया ।।
-- प्रियंका गोड़िया
Wednesday, January 23, 2019
Friday, January 11, 2019
अभी हम जिंदा है ं, आजाद परिंदा हैं।
मेरे किसी अपने ने मुझसे पूछा की जब हम दो बार, तीन बार हार जाते हैं, तो समाज हमें हेय्य की दृष्टि से देखता है। हमें दुत्कारने लगता है। हमें गुनाहगार की नजरों से देखा जाने लगता है। और जिससे हताश होकर हम या तो हार मान जाते हैं या आत्महत्या कर लेते हैं। यह बात कहीं ना कहीं सच भी है। अधिकतर ऐसा ही होता है। मेरी नजरों में इसका सीधा और सरल उपाय यह है कि हमें स्वयं को पहचानना होगा। हम क्या है? कैसे हैं? हमें दुसरो से जानने की आवश्यकता नहीं है,अगर हम स्वयं को पहचान ले तो। जिन्दगी में हम क्या बनना चाहते हैं? क्या करना चाहते है? यह हमें स्वयं तय करना होगा। हमें खुद से बेहतर कोई दूसरा व्यक्ति या समाज नहीं समझ सकता है। काम वही करना चाहिए जिससे हमें सुकून, खुशी और सफलता प्राप्त हो।
चलो अब कश्ती से उस पार चले,
दरिया को पार कर किनारे के पास चले।।
मुझे प्रायः एक ही बात खटकती है आखिर समाज क्या है? कौन है? जहाँ तक मैंने अनुभव किया है समाज हमारी ही सोच से बनता है। अगर हम कुछ प्रारम्भ करते हैं, तो कोई अच्छा तो कोई बुरा कहेगा, कोई आत्मविश्वास बढ़ाएगा, समर्थन करेगा, तो अन्य कोई निराश, हताश, असमर्थन जाताएगा। उदाहरण के रुप में कहें तो अगर हम अच्छा कपड़ा पहन लेते हैं तो कहेंगे कि पहन ओढ़ कर हमें दिखा रहा है, नहीं पहनेंगे तो भिखारी बना दिए जाएगें। अपने काम से मतलब रखें तो घमण्डी, दूसरों से मतलब रखें तो चुगलखोर, नाक घुसेड़ु, ज्यादा पढ़ो तो पढ़ाकू, यहाँ तक कह देते हैं कि जिन्दगी भर बस पढ़ेगा काम धंधा कब करेगा, अगर गलती से ना पढ़ो तो अवारा पक्का से बना दिए जाते हैं। साथ में रहकर पती पत्नी की ना बने तो कहेगें ऐ नहीं की अलग होकर जीवन सुकून से बीताए और अगर गलती से तलाक़ हो जाए तब तो समाज की नज़रों में आप गुनहगार घोषित कर दिए जाएगें। समाज ऐसा ही है।
चलो अब हिम्मत से उस पार चले,
मजबूरीयों को तोड़ कर मंजिलो के पास चले।।
कहने का तात्पर्य यह है कि "समाज विभिन्न व्यक्तियों की सोच से मिलकर बना वह उलझा जाल है जिससे हम जितना निकलने का प्रयत्न करेंगे उतना उलझते जाएगें। इस से हम कभी नहीं निकल सकते। तो ऐसे सूरत क्यों न समाज में रहकर हम स्वयं को पहचान कर खुद की बातों पर ध्यान दे कर जिएं। जिससे हमें आत्मविश्वास और सफलता मिले।
चलो अब होश में उस पार चले,
दुनिया की नफरत छोड़ प्यार के पास चले।।
जब तक हम स्वयं को नहीं पहचानेंगे तब तक दूसरा कोई व्यक्ति हमें कैसे जान या समझ सकता है। हमें खुद को पहले से बेहतर बनाना होगा। खुद से खुद को हराना होगा। अपनी आप की तैयार की गई हदों को पार कर अपने लिए नया हद स्थापित करना होगा। हमरी जंग स्वयं से होनी चाहिए दूसरों से नहीं। हम दूसरो को हरा कर केवल आगे बढ़ सकतें है। किन्तु स्वयं को चुनौतियां देकर, हराकर सफलता का आसमान छू सकते हैं। खुद से लड़ना होगा, मजबूत होना होगा, जीतना होगा, तभी हम बाहरी ताकतों से, समाज से लड़ सकते हैं।
चलो अब उड़ कर उस पार चले,
धरती को छोड़ आकाश के पास चले।।
जितना प्रयास करेंगे, असफल होंगे उतना ज्यादा अनुभव प्राप्त करेंगे, उतना ही सीख पाएंगे। जीतना बड़ी बात नहीं है बल्कि उस जीत को बनाए रखना बड़ी बात है। और यह जीत उसी "असफलता से मिले अनुभव से बना रहे सकता है। "
चलो अनुभव के साथ उस पार चले,
बेड़ियों को तोड़ ज्ञान के पास चले।।
अपवाद हर श्रेणी में होते हैं, शायद हम में से कोई हो। जरूरी नही सब जीते ही, परन्तु कोशिश करते रहना आप का हमारा कर्तव्य है। हम जब तक जिन्दा है तभी तक सफल, असफल, जीत, हार सकते हैं। जिन्दगी ईश्वर और माता-पिता का दिया अनमोल तौफा है, उसे बेवजह दूसरों या समाज की बातों को सुनकर खत्म कर के इसका अपमान मत किजिए। जिन्दगी को खत्म करने के क्षण में उस व्यक्ति को बहुत हिम्मत की आवश्यकता पड़ती होगी तो क्यों न उस हिम्मत को नयी शुरुआत करने में लगाए, सही कार्य करने में लगाए। जिन्दगी को खत्म करके अपने आप को मुक्त कर सकते है परन्तु अपने नाम को कलंक की स्याही से लिखें जाने के लिए छोड़ जातें हैं। आखरी क्षणों में हमें अपना और अपनों का ख्याल आता है, समाज का नहीं परन्तु तब तक देर हो जाती है।
चलो अब मन से उस पार चले,
दास्ताँ को छोड़ स्वाधीनता के पास चले।।
जिन्दगी से हार मान कर नहीं, खुश होकर हिम्मत, मेहनत और आत्मविश्वास से जीना सिखना होगा। "वक्त के थपेड़े आप को, हमें, हम सबको तोड़ने के लिए नहीं, बेहतर इन्सान बनाने के लिए होते हैं। "
आओ अब हम नया इतिहास रचें,
दुनिया में रहकर ज्ञान का प्रकाश भरे।।
चलो अब कश्ती से उस पार चले,
दरिया को पार कर किनारे के पास चले।।
मुझे प्रायः एक ही बात खटकती है आखिर समाज क्या है? कौन है? जहाँ तक मैंने अनुभव किया है समाज हमारी ही सोच से बनता है। अगर हम कुछ प्रारम्भ करते हैं, तो कोई अच्छा तो कोई बुरा कहेगा, कोई आत्मविश्वास बढ़ाएगा, समर्थन करेगा, तो अन्य कोई निराश, हताश, असमर्थन जाताएगा। उदाहरण के रुप में कहें तो अगर हम अच्छा कपड़ा पहन लेते हैं तो कहेंगे कि पहन ओढ़ कर हमें दिखा रहा है, नहीं पहनेंगे तो भिखारी बना दिए जाएगें। अपने काम से मतलब रखें तो घमण्डी, दूसरों से मतलब रखें तो चुगलखोर, नाक घुसेड़ु, ज्यादा पढ़ो तो पढ़ाकू, यहाँ तक कह देते हैं कि जिन्दगी भर बस पढ़ेगा काम धंधा कब करेगा, अगर गलती से ना पढ़ो तो अवारा पक्का से बना दिए जाते हैं। साथ में रहकर पती पत्नी की ना बने तो कहेगें ऐ नहीं की अलग होकर जीवन सुकून से बीताए और अगर गलती से तलाक़ हो जाए तब तो समाज की नज़रों में आप गुनहगार घोषित कर दिए जाएगें। समाज ऐसा ही है।
चलो अब हिम्मत से उस पार चले,
मजबूरीयों को तोड़ कर मंजिलो के पास चले।।
कहने का तात्पर्य यह है कि "समाज विभिन्न व्यक्तियों की सोच से मिलकर बना वह उलझा जाल है जिससे हम जितना निकलने का प्रयत्न करेंगे उतना उलझते जाएगें। इस से हम कभी नहीं निकल सकते। तो ऐसे सूरत क्यों न समाज में रहकर हम स्वयं को पहचान कर खुद की बातों पर ध्यान दे कर जिएं। जिससे हमें आत्मविश्वास और सफलता मिले।
चलो अब होश में उस पार चले,
दुनिया की नफरत छोड़ प्यार के पास चले।।
जब तक हम स्वयं को नहीं पहचानेंगे तब तक दूसरा कोई व्यक्ति हमें कैसे जान या समझ सकता है। हमें खुद को पहले से बेहतर बनाना होगा। खुद से खुद को हराना होगा। अपनी आप की तैयार की गई हदों को पार कर अपने लिए नया हद स्थापित करना होगा। हमरी जंग स्वयं से होनी चाहिए दूसरों से नहीं। हम दूसरो को हरा कर केवल आगे बढ़ सकतें है। किन्तु स्वयं को चुनौतियां देकर, हराकर सफलता का आसमान छू सकते हैं। खुद से लड़ना होगा, मजबूत होना होगा, जीतना होगा, तभी हम बाहरी ताकतों से, समाज से लड़ सकते हैं।
चलो अब उड़ कर उस पार चले,
धरती को छोड़ आकाश के पास चले।।
जितना प्रयास करेंगे, असफल होंगे उतना ज्यादा अनुभव प्राप्त करेंगे, उतना ही सीख पाएंगे। जीतना बड़ी बात नहीं है बल्कि उस जीत को बनाए रखना बड़ी बात है। और यह जीत उसी "असफलता से मिले अनुभव से बना रहे सकता है। "
चलो अनुभव के साथ उस पार चले,
बेड़ियों को तोड़ ज्ञान के पास चले।।
अपवाद हर श्रेणी में होते हैं, शायद हम में से कोई हो। जरूरी नही सब जीते ही, परन्तु कोशिश करते रहना आप का हमारा कर्तव्य है। हम जब तक जिन्दा है तभी तक सफल, असफल, जीत, हार सकते हैं। जिन्दगी ईश्वर और माता-पिता का दिया अनमोल तौफा है, उसे बेवजह दूसरों या समाज की बातों को सुनकर खत्म कर के इसका अपमान मत किजिए। जिन्दगी को खत्म करने के क्षण में उस व्यक्ति को बहुत हिम्मत की आवश्यकता पड़ती होगी तो क्यों न उस हिम्मत को नयी शुरुआत करने में लगाए, सही कार्य करने में लगाए। जिन्दगी को खत्म करके अपने आप को मुक्त कर सकते है परन्तु अपने नाम को कलंक की स्याही से लिखें जाने के लिए छोड़ जातें हैं। आखरी क्षणों में हमें अपना और अपनों का ख्याल आता है, समाज का नहीं परन्तु तब तक देर हो जाती है।
चलो अब मन से उस पार चले,
दास्ताँ को छोड़ स्वाधीनता के पास चले।।
जिन्दगी से हार मान कर नहीं, खुश होकर हिम्मत, मेहनत और आत्मविश्वास से जीना सिखना होगा। "वक्त के थपेड़े आप को, हमें, हम सबको तोड़ने के लिए नहीं, बेहतर इन्सान बनाने के लिए होते हैं। "
आओ अब हम नया इतिहास रचें,
दुनिया में रहकर ज्ञान का प्रकाश भरे।।
Sunday, January 6, 2019
दबी आवाज़
क्या हो गया है यह आज
यह चोट यह खरोंच कैसे ?
कही नही जाना है,
चोट तो भर ही जाएगी
यह चोट यह खरोंच कैसे ?
कुछ नही बताना है,
अपनी चीखों को दबाकर
बस, किसी कोने में छिप जाना है। चोट तो भर ही जाएगी
खरोंच भी मिट ही जाएगी
चमड़े पर परत चढ़ ही जाएगी,
मर- मर कर जीने के बाद
मरने पर कफ़न शायद मिल ही जाएगी
बस, किसी कोने मे तब तक छिप पायीं।
अगर गयी तो फिर क्या होगा ?
क्या न्यायालय साथ होगा ?
जिस्म के तो टुकड़े हुए है
आत्मा के भी हो जाएगें
शरीर के तो कपड़े उतरे थे,
मन के भी उतर जाएगें।
वह सब फिर बताना होगा
घिनौनी करतुत को दोहराना होगा,
समाज से दुत्कार दी जाउगी
फिर, इस दुनिया में ना जी पाउगीं
सब की निगाहों में आ जाउगी
फिर, किसी कोने में भी ना छिप पाउगी।
--प्रियंका गोड़िया
चमड़े पर परत चढ़ ही जाएगी,
मर- मर कर जीने के बाद
मरने पर कफ़न शायद मिल ही जाएगी
बस, किसी कोने मे तब तक छिप पायीं।
अगर गयी तो फिर क्या होगा ?
क्या न्यायालय साथ होगा ?
जिस्म के तो टुकड़े हुए है
आत्मा के भी हो जाएगें
शरीर के तो कपड़े उतरे थे,
मन के भी उतर जाएगें।
वह सब फिर बताना होगा
घिनौनी करतुत को दोहराना होगा,
समाज से दुत्कार दी जाउगी
फिर, इस दुनिया में ना जी पाउगीं
सब की निगाहों में आ जाउगी
फिर, किसी कोने में भी ना छिप पाउगी।
अंधकार था वहा पर
सच अंधकार था वहा पर
पर आज फिर भी क्यों ?
अंधकार मांगती हूँ ?
बस, किसी कोने में छिप कर
जिंदगी जीने की वजह मांगती हूँ ।।
--प्रियंका गोड़िया
Saturday, January 5, 2019
वाह रे ! चाय
वाह रे ! तु गजब है, गजब है तेरा स्वाद,
ना तु बनने में लेती है कोई घड़ी,
ना तु बनने में लेती है कोई घड़ी,
ना तु प्याले में ढलने मे लेती है कोई घड़ी,
और ना ही तु लेती है होठों को छुने कोई घड़ी,
और ना ही तु लेती है होठों को छुने कोई घड़ी,
फुर्ती सी छा जाती है तुझको पीते ही
वाह रे ! तु गजब है गजब है तेरा स्वाद।।
कुछ पीते हैं सिर्फ सुबह, शाम तुझको,
और कुछ पीते ही रहते सुबह से शाम तुझको,
ना जाने क्या है तुझमे ऐसा, जो मन ना भरता
वाह ! वाह ! मन करता रहता,
बस एक प्याले को मन तरसता रहता
वाह रे ! तु गजब है गजब है तेरा स्वाद।।
समाचार के साथ जो तु मिल जाती है,
लोगों के मन को तब तु प्रफुल्लित कर जाती है,
बिस्कुट, चनाचुर और समोसे है तेरे साथी
तु एक प्याली जीवन को मधुशाला कर जाती
फुर्ती सी छा जाती है तुझको पीते ही
वाह रे ! तु गजब है गजब है तेरा स्वाद।।
अब तो तु रूप भी बदल चुकी है,
काला, लाल, सफेद से हरी हो चुकी है,
आधुनिकता ने तुझको भी ना छोडा़
कुल्हड़ से अब तु प्याली में आ चुकी है
वाह रे ! तु गजब है गजब है तेरा स्वाद।
वाह रे ! तु गजब है गजब है तेरा स्वाद।।
-- प्रियंका गोड़िया
और कुछ पीते ही रहते सुबह से शाम तुझको,
ना जाने क्या है तुझमे ऐसा, जो मन ना भरता
वाह ! वाह ! मन करता रहता,
बस एक प्याले को मन तरसता रहता
वाह रे ! तु गजब है गजब है तेरा स्वाद।।
समाचार के साथ जो तु मिल जाती है,
लोगों के मन को तब तु प्रफुल्लित कर जाती है,
बिस्कुट, चनाचुर और समोसे है तेरे साथी
तु एक प्याली जीवन को मधुशाला कर जाती
फुर्ती सी छा जाती है तुझको पीते ही
वाह रे ! तु गजब है गजब है तेरा स्वाद।।
अब तो तु रूप भी बदल चुकी है,
काला, लाल, सफेद से हरी हो चुकी है,
आधुनिकता ने तुझको भी ना छोडा़
कुल्हड़ से अब तु प्याली में आ चुकी है
वाह रे ! तु गजब है गजब है तेरा स्वाद।
वाह रे ! तु गजब है गजब है तेरा स्वाद।।
-- प्रियंका गोड़िया
Subscribe to:
Posts (Atom)